यूँ जो सूरज की तरह ढलते हो तुम



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ho tum |


 यूँ जो सूरज की तरह ढलते हो तुम 

इसकी क्या जरुरत है 

इतना क्यों खुद से छुपते हो तुम 

हम तो खुली किताब हैं ,आकर पढ़ लो तुम

अभी इजाजत है,इतना क्यों हमसे डरते हो तुम ..?




यूँ जो सूरज की तरह ढलते  हो तुम 

इसकी क्या जरूरत है,

 इतना क्यूँ खुद से छुपते हो तुम 

यूँ  खामोशियों के मेले में 

जो जज्बातों का खेल खेलते हो तुम 

अब बयाँ भी कर दो ,ऐसा क्यूँ करते हो तुम 



 हम तो बयाँ कर ही देते हैं अल्फाज़ अपने 

कभी खुद से भी रूबरू करवाओ तुम 

यूँ जो सूरज की तरह ढलते हो तुम 

इसकी क्या जरुरत है ,

इतना क्यूँ खुद से छुपते हो तुम ...?



नौका में सवार हो सब उस पार चले ही  जाते हैं 

कभी गहराइयों में उतरोगे तो न जानोगे तुम 

कुछ पल के लिए तो बहुत मिल जाते हैं खुशियाँ लुटाने वाले 

कुछ दूर साथ चलोगे तो न अपनाओगे  तुम ...!!


 

कितनी राते यूँ ही गवां दी रो -रोकर 

मेरे अतीत से मिलोगे तो न जानोगे कैसे हो तुम 

यूँ जो सूरज की रोज- रोज ढलते हो तुम  ,

इसकी क्या जरुरत है ,

इतना क्यूँ खुद से छुपते हो तुम ..?



यूँ चांदनी रात में सफ़र करने वालों 

कभी अंधेरों से गुजरोगे तो न जानोगे कैसे हो तुम ...!



यूँ ही  रोज -रोज हमारी  खामियां गिनाने वालों 

कभी खुद के अंदर भी झांको 

तो न जानोगे कैसे हो तुम ..!



यूँ  ही दूसरों पर कीचड़ उछालने वालों 

कभी अपनी भी अशलियत को देखो 

तो न जानोगे कैसे हो तुम 

यूँ जो सूरज की तरह ढलते हों तुम 

ऐसा क्या है इतना क्यूँ खुद से छुपते हों तुम |


'कभी -कभी खामोशियों का 

शोर यूँ मन में समाँ जाता है ,

की हमे जानने वाला कुछ भी पढ़ कर चला जाता है |


"जो लोग अपनी सोच नहीं बदल सकते 

वो लोग अपनी जिंदगी में, 

अपना कुछ नहीं बदल सकते..!


"कभी मिलना हमसे फुर्सत में तो ,

तुम्हे तुमसे रूबरू करवाएंगे हम ..

हम कलम की वो स्याही हैं, 

जो खुद मिटकर दूसरों को 

पढना सिखा देते हैं हम ..!!


अब खोल दे पंख मेरे ,अभी और उड़ान बाकी है 

जमी नहीं है मंजिल मेरी अभी तो सारा आसमान बाकी  है, 

मेरी ख़ामोशी को मेरी बेबशी मत समझ ये नादाँ 

जितनी गहराई अंदर है मेरे ,बाहर उतना ही तूफ़ान बाकी है ...



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